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पंचांग - 12-09-2025

 *🗓*आज का पञ्चाङ्ग*🗓*

JYOTISH



*🎈 आश्विन,कृष्ण पक्ष,षष्ठी श्राद्ध2082 कालयुक्त, विक्रम सम्वत 12 सितम्बर 2025 गुरुवार पितृपक्ष प्रारम्भहै, शुक्रवार श्राद्ध, आश्विन*

*🎈 दिनांक -12 सितंबर 2025*
*🎈 दिन-  शुक्रवार*
*🎈 विक्रम संवत् - 2082*
*🎈 अयन - दक्षिणायण*
*🎈 ऋतु - शरद*
*🎈 मास -अश्विन*
*🎈 पक्ष - कृष्ण*
*🎈 पक्ष -श्राद्ध *
*🎈तिथि - षष्ठी    09:58:02am  तत्पश्चात् ,सप्तमी  * 
*🎈नक्षत्र - भरणी    11:57:43 pm रात्रि तक तत्पश्चात्         कृत्तिका*
*🎈योग -     व्याघात    13:42:24 pm  तक तत्पश्चात्         हर्शण*
*🎈 करण    -        तैतुल    09:58:02 pm तक    तत्पश्चात्     वणिज*
*🎈 राहुकाल_हर जगह का अलग  है-   10:58 am से 12:31 pm तक (राजस्थान प्रदेश नागौर मानक समयानुसार)*
*🎈चन्द्र राशि    - चन्द्र राशि       मेष    till 17:29:33
चन्द्र राशि       वृषभ    from 17:29:33*
*🎈सूर्य राशि    -   सिंह*
*🎈सूर्योदय - 06:20:16am*
*🎈सूर्यास्त - 06:41:52:pm* (सूर्योदय एवं सूर्यास्त राजस्थान प्रदेश नागौर मानक समयानुसार)* 
*🎈दिशा शूल - पश्चिम दिशा में*
*🎈ब्रह्ममुहूर्त - 04:46 ए एम से 05:33 ए एम तक (राजस्थान प्रदेश नागौर मानक समयानुसार)* 
*🎈अभिजीत मुहूर्त - 12:06 पी एम से 12:56 पी एम*
*🎈निशिता मुहूर्त - 12:08 ए एम, सितम्बर 13 से 12:55 ए एम, सितम्बर 13*
*🎈रवि योग    11:58 ए एम से 06:20 ए एम, सितम्बर 13*
 
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    *🛟चोघडिया, दिन🛟*
   नागौर, राजस्थान, (भारत)    
       सूर्योदय के अनुसार।

*🎈 चर - सामान्य-06:16 ए एम से 07:50 ए एम*

लाभ - उन्नति-07:50 ए एम से 09:25 ए एम*

अमृत - सर्वोत्तम-09:25 ए एम से 10:59 ए एम वार वेला*

काल - हानि-10:59 ए एम से 12:33 पी एम काल वेला*

शुभ - उत्तम-12:33 पी एम से 02:08 पी एम*

रोग - अमंगल-02:08 पी एम से 03:42 पी एम*

उद्वेग - अशुभ-03:42 पी एम से 05:17 पी एम*

चर - सामान्य-05:17 पी एम से 06:51 पी एम*
  
 *🛟चोघडिया, रात्🛟*

*🎈रोग - अमंगल-06:51 पी एम से 08:17 पी एम*

काल - हानि-08:17 पी एम से 09:42 पी एम*

लाभ - उन्नति-09:42 पी एम से 11:08 पी एम काल रात्रि*

उद्वेग - अशुभ-11:08 पी एम से 12:34 ए एम, सितम्बर 06*

शुभ - उत्तम-12:34 ए एम से 01:59 ए एम, सितम्बर 06*

अमृत - सर्वोत्तम-01:59 ए एम से 03:25 ए एम, सितम्बर 06*

चर - सामान्य-03:25 ए एम से 04:51 ए एम, सितम्बर 06*

रोग - अमंगल-04:51 ए एम से 06:16 ए एम, सितम्बर 06*
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    🚩*☀ #पितृ पक्ष☀*
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🔷  #पितृ पक्ष :

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिन पितृ पक्ष ('पितृ' अथवा 'पिता') के नाम से जाने जाते है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध आदि सम्पन करते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा 'पितृ पक्ष' में। जिस मास और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उस तिथि को 'एकोदिष्ट श्राद्ध' किया जाता है। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को 'पितृ श्राद्ध' कहते हैं।

महत्त्व -

'पितृ पक्ष' अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर सूर्य देव जब कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब हमारे पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे तर्पण की कामना करते हैं। श्राद्ध से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं। पितृ पक्ष के समय वैदिक परंपरा के अनुसार 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष के समय पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

तीन ऋण -

भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य पर इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात् तीन प्रकार के ऋण होते हैं-

१. देव ऋण

२. ऋषि ऋण

३. पितृ ऋण

पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी १६ श्राद्ध वर्ष के ऐसे दिव्य दिवस हैं, जिनमें व्यक्ति श्राद्ध प्रक्रिया में सम्मिलित होकर उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है। महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से मना कर दिया था। कर्ण ने कहा कि- "मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने उत्तर दिया कि- "राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो दे दिया है, परंतु आपके उपर अभी पितृऋण शेष है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा।" इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप १६ दिन के लिए पुनः पृथ्वी पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध-तर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी।

प्रमुख श्राद्ध स्थल -

जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और पितरों का आदर सत्कार नहीं करते, पितृगण उनसे सतत रूष्ट रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दु:खी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं। अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है। भारत की पावन भूमि में ऐसे कई स्थान हैं, जहाँ ऐसे भूले-भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते हैं। जैसे कि बिहार में गया के घाट पर, गंगासागर तथा महाराष्ट्र में त्र्यम्बकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, उत्तर प्रदेश में गडगंगा, उत्तराखंड में हरिद्वार भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्धकर्म को आरंभ करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं। इन स्थलों में जाकर वे श्रद्धालु भी पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ कर सकते हैं, जिन्होंने पहले कभी भी श्राद्घ न किया हो। वैसे तो पितृ पक्ष के श्राद्ध की महिमा अपार है, परंतु जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत पिता, माता दादा, परदादा, नाना, नानी आदि का इन १६ श्राद्धों में व्रत उपवास रखकर ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा आदि देते हैं, उनके घर लक्ष्मी और विष्णु भगवान सदैव ही बने रहते हैं। अर्थात् वे सदैव ही धन धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।

श्राद्ध तिथियाँ -

श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिकजनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है, जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात् पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, परंतु विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं, जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्न्यासियों का श्राद्ध द्वादशी के दिन और जिन पितरों के मृत्यु की तिथि स्मरण नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। जीवन मे यदि कभी भूले-भटके माता-पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृ पक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-चावल, पूरी व पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा-ताऊ, चाचा, परदादा, नाना-नानी आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएँ। यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृ पक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन भी प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। 'मनुस्मृति' में इसका विशेष प्रावधान है।

पितृ पक्ष की सभी पंद्रह तिथियाँ श्राद्ध को समर्पित हैं। अतः वर्ष के किसी भी माह एवं तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों का श्राद्ध उसी तिथि को किया जाना चाहिए। पितृ पक्ष में 'कुतप वेला' अर्थात् मध्याह्न के समय (दोपहर साढे़ बारह से एक बजे तक) श्राद्ध करना चाहिए। प्रत्येक माह की अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि मानी जाती है, किंतु आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या पितरों हेतु विशेष फलदायक है। इस अमावस्या को पितृविसर्जनी अमावस्या अथवा महालया भी कहा जाता है। इसी तिथि को समस्त पितरों का विसर्जन होता है। जिन पितरों की पुण्य तिथि ज्ञात नहीं होती अथवा किन्हीं कारणवश जिनका श्राद्ध पितृ पक्ष के पंद्रह दिनों में नहीं हो पाता, उनका श्राद्ध, दान, तर्पण आदि इसी तिथि को किया जाता है। इस अमावस्या को सभी पितर अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के द्वार पर पिण्डदान, श्राद्ध एवं तर्पण आदि की कामना से जाते हैं, तथा इन सबके न मिलने पर शाप देकर पितृलोक को प्रस्थान कर जाते हैं।

पितरों का आगमन -

श्राद्ध से पहले श्राद्धकर्ता को एक दिन पहले उपवास रखना होता है, जिसे हबीक कहते। अगले दिन निर्धारित मृत्यु तिथि को अपराह्न में गजछाया के उपरांत श्राद्ध तर्पण तथा बाह्मण भोज कराया जाता है। मान्यता है कि पितृ पक्ष के समय पितर दोपहर बाद श्राद्धकर्ता के घर पक्षी/कौवे या चिडिया के रूप मे आते हैं। अतः श्राद्धकर्म कभी भी सुबह या एक बजे से पहले नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तक दिवंगत पितर अनुपस्थित रहते हैं। कुछ लोग भोजन बनाकर बिना पिण्ड दिये ही मन्दिर में थाली दे आते हैं। इससे भी मृतआत्मा की शान्ति नहीं होती और श्राद्धकर्ता को श्राद्ध का पुण्य नहीं मिलता।

भोज्य पदार्थ -

श्राद्ध के दिन लहसुन, प्याज रहित सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए, जिसमें उड़द की दाल, बडे, चावल, दूध-घी से बने पकवान, खीर, मौसमी सब्जी जो बेल पर लगती है, जैसे- तोरई, लौकी, सीताफल, भिण्डी, कच्चे केले की सब्जी आदि ही भोजन मे मान्य है। आलू, मूली, बैंगन, अरबी तथा जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियाँ पितरो को नहीं चढ़ती हैं। श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन-तीन आहुतियों और तीन-तीन चावल के पिण्ड तैयार करने के बाद 'प्रेतमंजरी' के मंत्रोच्चार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरों को नाम और राशि से सम्बोधित करके आमंत्रित किया जाता है। कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से स्नान कराकर तिल, जौ और सफ़ेद रंग के फूल और चन्दन आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे का पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है। फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है।

संतानहीन का श्राद्ध -

श्राद्ध करने के लिए 'मनुस्मृति' और 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' जैसे सभी प्रमुख शास्त्रों में यही बताया गया है कि दिवंगत पितरों के परिवार में या तो ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र और अगर पुत्र न हो तो धेवता (नाती), भतीजा, भांजा या शिष्य ही तिलांजलि और पिंडदान देने के पात्र होते हैं। कई ऐसे पितर भी होते हैं, जिनके पुत्र संतान नहीं होती है या फिर जो संतानहीन होते हैं। ऐसे पितरों के प्रति आदर पूर्वक अगर उनके भाई, भतीजे, भांजे या अन्य चाचा-ताऊ के परिवार के पुरुष सदस्य पितृ पक्ष में श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर पिंडदान, अन्नदान और वस्त्रदान करके ब्राह्मणों से विधिपूर्वक श्राद्ध कराते हैं तो पीड़ित आत्मा को मोक्ष मिलता है।

स्त्री के लिए श्राद्ध का अधिकार -

एक मुख्य बात और है कि "क्या विभिन्न पारिवारिक परिस्थितियों में महिलाएँ भी श्राद्ध कर सकती है या नहीं"। इस प्रश्न को भी उठाया जाता रहा है। परिवार के पुरुष सदस्य या पुत्र-पौत्र आदि नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के अन्तिम संस्कार करते या मरने के बाद वर्षी श्राद्ध करते देखा गया है। परिस्थितियो के अनुसार यह एक अन्तिम विकल्प ही है, जो अब धीरे-धीरे चलन में आने लगा है। इस विषय में 'धर्मसिन्धु' सहित 'मनुस्मृति' और 'गरुड़पुराण' आदि ग्रन्थ भी महिलाओं को पिण्डदान आदि करने का अधिकार प्रदान करते हैं। आज के समय में शंकराचार्यों ने भी इस प्रकार की व्यवस्थाओं को तर्क संगत बताया है कि श्रा़द्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को न भूलें। अन्तिम संस्कार में भी महिला अपने परिवार/पितर को मुखाग्नि दे सकती है।

वैदिक परंपरा के अनुसार महिलाएँ यज्ञ अनुष्ठान, संकल्प और व्रत आदि तो रख सकती हैं, परंतु श्राद्ध की विधि को स्वयं नहीं कर सकती हैं। विधवा स्त्री अगर संतानहीन हो तो अपने पति के नाम श्राद्ध का संकल्प रखकर ब्राह्मण या पुरोहित परिवार के पुरुष सदस्य से ही पिंडदान आदि का विधान पूरा करवा सकती है। इसी प्रकार जिन पितरों के कन्याएँ ही वंश परंपरा में हैं तो उन्हें पितरों के नाम व्रत रखकर उसके दामाद या धेवते, नाती आदि ब्राह्मण को बुलाकर श्राद्धकर्म की निवृत्ति करा सकते हैं। साधु-सन्तों के शिष्यगण या शिष्य विशेष श्राद्ध कर सकते हैं।


        🙏 जयश्रीहरिः 🙏
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*☠️🐍जय श्री महाकाल सरकार ☠️🐍*🪷* मोर मुकुट बंशीवाले  सेठ की जय हो 🪷*
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*♥️~यह पंचांग नागौर (राजस्थान) सूर्योदय के अनुसार है।*
*अस्वीकरण(Disclaimer)पंचांग, धर्म, ज्योतिष, त्यौहार की जानकारी शास्त्रों से ली गई है।*
*हमारा उद्देश्य मात्र आपको  केवल जानकारी देना है। इस संदर्भ में हम किसी प्रकार का कोई दावा नहीं करते हैं।*
*राशि रत्न,वास्तु आदि विषयों पर प्रकाशित सामग्री केवल आपकी जानकारी के लिए हैं अतः संबंधित कोई भी कार्य या प्रयोग करने से पहले किसी संबद्ध विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लेवें...*

*♥️ रमल ज्योतिर्विद आचार्य दिनेश "प्रेमजी", नागौर (राज,)* 
vipul


*।।आपका आज का दिन शुभ मंगलमय हो।।* 
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