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पंचांग - 04-9-2025

 *🗓*आज का पञ्चाङ्ग*🗓*

JYOTIS


*🎈 दिनांक -04 सितंबर 2025*
*🎈 दिन- गुरुवार*
*🎈 विक्रम संवत् - 2082*
*🎈 अयन - दक्षिणायण*
*🎈 ऋतु - शरद*
*🎈 मास - भाद्रपद*
*🎈 पक्ष - शुक्ल*
*🎈तिथि -   द्वादशी    04:07:32 रात्रि तत्पश्चात् त्रयोदशी * 
*🎈नक्षत्र -         उत्तराषाढा    11:42:57pm तक तत्पश्चात्                 श्रवण*
*🎈योग -             सौभाग्य    03:20:37pm  तक तत्पश्चात्     शोभन*
*🎈 करण    -        बव    04:19:48pm तक    तत्पश्चात्     कौलव*
*🎈 राहुकाल_हर जगह का अलग  है-   02:08 pm से 03:42 pm तक (राजस्थान प्रदेश नागौर मानक समयानुसार)*
*🎈चन्द्र राशि       मकर    *
*🎈सूर्य राशि    -   सिंह*
*🎈सूर्योदय - 06:16:45am*
*🎈सूर्यास्त - 06:50:53:pm* (सूर्योदय एवं सूर्यास्त राजस्थान प्रदेश नागौर मानक समयानुसार)* 
*🎈दिशा शूल - दक्षिण दिशा में*
*🎈ब्रह्ममुहूर्त - प्रातः 04:45 से प्रातः 05:30 तक (राजस्थान प्रदेश नागौर मानक समयानुसार)* 
*🎈अभिजीत मुहूर्त - 12:09 पी एम से 12:59 पी एम*
*🎈निशिता मुहूर्त - 12:11 ए एम, सितम्बर 05 से 12:57 ए एम, सितम्बर 05*
*🎈अमृत काल    05:10 पी एम से 06:49 पी एम    *

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    *🛟चोघडिया, दिन🛟*
   नागौर, राजस्थान, (भारत)    
       सूर्योदय के अनुसार।

*🎈 शुभ - उत्तम 06:16 ए एम
       से 07:50 ए एम*

*🎈रोग - अमंगल-07:50 ए एम से 09:25 ए एम*

*🎈उद्वेग - अशुभ-09:25 ए एम से 10:59 ए एम*

*🎈चर - सामान्य10:59 ए एम से     12:34 पी एम*

*🎈लाभ - उन्नति-12:34 पी एम से 02:08 पी एम*

*🎈अमृत - सर्वोत्तम-02:08 पी एम से 03:43 पी एम*

*🎈काल - हानि-03:43 पी एम से 05:18 पी एम काल वेला*

*🎈शुभ - उत्तम-05:18 पी एम से 06:52 पी एम वार वेला*

 *🛟चोघडिया, रात्🛟*

*🎈अमृत - सर्वोत्तम-06:52 पी एम से 08:18 पी एम*

*🎈चर - सामान्य-08:18 पी एम से 09:43 पी एम*

*🎈रोग - अमंगल-09:43 पी एम से 11:09 पी एम*

*🎈काल - हानि-11:09 पी एम से 12:34 ए एम, सितम्बर 05*

*🎈लाभ - उन्नति-12:34 ए एम से 02:00 ए एम, सितम्बर 05 काल रात्रि*

*🎈उद्वेग - अशुभ-02:00 ए एम से 03:25 ए एम, सितम्बर 05*

*🎈शुभ - उत्तम-03:25 ए एम से 04:51 ए एम, सितम्बर 05*

*🎈अमृत - सर्वोत्तम-04:51 ए एम से 06:16 ए एम, सितम्बर 05*

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 🌹|| साधना के अनुभव ||🌹

प्रिय साधकों ,साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं. अनेक साधकों के ध्यान में होने वाले अनुभव एकत्रित कर यहाँ वर्णन कर रहे हैं ताकि नए साधको के प्रश्नों के उत्तर मिल सके।

वह अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते हों तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकें और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकें।

भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर सामान्य शुरुआत में कुछ रंग के गोले दिखते यह हमारे शरीर मे पंचतत्वों की उपस्तिथि दिखाते। पंचतत्वों का अपना एक रंग होता यह रंग मिल कर हजारों रंग का निर्माण करते।

जैसे अगर वायु तत्व ज्यादा होगा तो हरा रंग का गोला दिखता ओर अग्नि तत्व की प्रधानता में लाल रंग का गोला दिखता। ओर हरा लाल मिलकर बैंगनी भी दिखता।

योगी रंगों को देख अपने शरीर को संतुलित करते। आगे की अवस्था मे पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है. फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं।

एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है।इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है।

साधक यह सोचता है इक यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञाचक्र का ओर पीला रंग आत्मा का प्रकाश है। इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है।

इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्षा दीखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं भी साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं.

कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है।

यह कुंडलिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है. जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं।

परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुडा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है।

यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है. यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है. जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है।

यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है. फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है. जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है ।

उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है. इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं।

और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है. इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है.कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं. कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं।

ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ।

मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है. कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है।

यानि एक तो स्थूल शारीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर. तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है. परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है।

एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा सूक्ष्म शरीर कहलाता है ।सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शारीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है,चल सकता है। बोल सकता है।

परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है हर आयाम खुल जाता। क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है. इसी शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं।

अनाहत चक्र के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है. कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकर्लर एक स्थान पर एकत्र हुई।

और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है. उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है।कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है ।

और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है.कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया ।

मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी. ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं ।

परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। किन्तु अपने गुरु और इष्ट का स्मरण करने से लौट आते। कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं।

ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है. उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है. सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है।

यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है. उस तेज को सहन करना कठिन होता है. लगता है कि आँखें चौंधिया गईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है।

वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है. इसको देखने का नित्य अभ्यास करना चाहिए. समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है. ध्यान में कभी ऐसे लगता है जैसे पूरी पृथ्वी गोद में रखी हुई है।

या शरीर की लम्बाई बदती जा रही है और अनंत हो गई है, या शरीर के नीचे का हिस्सा लम्बा होता जा रहा है और पूरी पृथ्वी में व्याप्त हो गया है, शरीर के कुछ अंग जैसे गर्दन का पूरा पीछे की और घूम जाना।

शरीर का रूई की तरह हल्का लगना, ये सब ध्यान के समय कुण्डलिनी जागरण के कारण अलग-अलग चक्रों की प्रतिभाएं प्रकट होने के कारण होता है. परन्तु साधक को इनका उपयोग नहीं करना चाहिए।

केवल परमात्मा की प्राप्ति को ही लक्ष्य मानकर ध्यान करते रहना चाहिए. इन प्रतिभाओं पर ध्यान न देने से ये पुनः अंतर्मुखी हो जाती हैं. कभी-कभी साधक का पूरा का पूरा शरीर एक दिशा विशेष में घूम जाता है।

या एक दिशा विशेष में ही मुंह करके बैठने पर ही बहुत अच्छा ध्यान लगता है अन्य किसी दिशा में नहीं लगता. यदि अन्य किसी दिशा में मुंह करके बैठें भी, तो शरीर ध्यान में अपने आप उस दिशा विशेष में घूम जाता है।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके ईष्ट देव या गुरु का निवास उस दिशा में होता है जहाँ से वे आपको सन्देश भेजते हैं. कभी-कभी किसी मंत्र विशेष का जप करते हुए भी ऐसा महसूस हो सकता है।

क्योंकि उस मंत्र देवता का निवास उस दिशा में होता है, और मंत्र जप से उत्पन्न तरंगें उस देवता तक उसी दिशा में प्रवाहित होती हैं, फिर वहां एकत्र होकर पुष्ट हो जाती हैं और इसी से उस दिशा में खिंचाव महसूस होता है।

संसार (दृश्य) व शरीर का अत्यंत अभाव का अनुभव :-
साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार व शरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है।

यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है. उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं (ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं). सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है।

तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है, क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है?
वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं. यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है अतः साधक घबराएं नहीं।

बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें. यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है 
    शेष भाग कल....  
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*☠️🐍जय श्री महाकाल सरकार ☠️🐍*🪷* मोर मुकुट बंशीवाले  सेठ की जय हो 🪷*
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*♥️~यह पंचांग नागौर (राजस्थान) सूर्योदय के अनुसार है।*
*अस्वीकरण(Disclaimer)पंचांग, धर्म, ज्योतिष, त्यौहार की जानकारी शास्त्रों से ली गई है।*
*हमारा उद्देश्य मात्र आपको  केवल जानकारी देना है। इस संदर्भ में हम किसी प्रकार का कोई दावा नहीं करते हैं।*
*राशि रत्न,वास्तु आदि विषयों पर प्रकाशित सामग्री केवल आपकी जानकारी के लिए हैं अतः संबंधित कोई भी कार्य या प्रयोग करने से पहले किसी संबद्ध विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लेवें...*

*♥️ रमल ज्योतिर्विद आचार्य दिनेश "प्रेमजी", नागौर (राज,)* 
*।।आपका आज का दिन शुभ मंगलमय हो।।* 
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